अब ये Startup नहीं जलने देगा पराली, दो दोस्तों ने बनाई है Bio Fabrication Technology, जानें कैसे काम करेगी

अब ये Startup नहीं जलने देगा पराली, दो दोस्तों ने बनाई है Bio Fabrication Technology, जानें कैसे काम करेगी

सरकारों से लेकर तमाम संस्थाएं सालों से इससे निपटने का तरीका ढूंढ रही हैं और कई प्रोजेक्ट पर काम भी कर रही हैं. इसी बीच एक स्टार्टअप ने इससे निपटने का ऐसा सॉल्यूशन निकाला है, जिससे एक-दो नहीं, बल्कि कई सारे फायदे होंगे.

भारत में पराली जलाने की वजह से होने वाला प्रदूषण (Pollution) एक बड़ी समस्या है. हर साल नवंबर-दिसंबर में दिल्ली की हवा बेहद जहरीली हो जाती है. स्मॉग इतना ज्यादा बढ़ जाता है कि हर तरफ धुआं-धुआं सा दिखने लगता है.

सरकारों से लेकर तमाम संस्थाएं सालों से इससे निपटने का तरीका ढूंढ रही हैं और कई प्रोजेक्ट पर काम भी कर रही हैं. इसी बीच एक स्टार्टअप ने इससे निपटने का ऐसा सॉल्यूशन निकाला है, जिससे एक-दो नहीं, बल्कि कई सारे फायदे होंगे.

यहां बात हो रही है धरक्षा ईको-सॉल्यूशन्स (Dharaksha Ecosolutions) की, जो पराली जलने से होने वाले प्रदूषण को रोकने का काम कर रहा है.

धरक्षा की शुरुआत दिल्ली में रहने वाले अर्पित धूपड़ ने गुरुग्राम में रहने वाले अपने दोस्त आनंद बोध के साथ मिलकर की है. दोनों के बीच करीब 10-15 साल पुरानी दोस्ती है. मैकेनिकल इंजीनियरिंग से ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान दोनों रहते भी साथ में थे.

इसके बाद अर्पित ने आईआईटी दिल्ली से एक छोटा सा कोर्स 'डिजाइन ऑफ मशीन एलिमेंट' किया, जबकि आनंद बोध ने साइकोलॉजी की पढ़ाई की. दोनों ही दोस्तों की उम्र अभी करीब 30 साल है, लेकिन दिल में जज्बा एक बड़ा बदलाव लाने का है.

ग्रेजुएशन के बाद अर्पित को अहसास हुआ कि वह दुनिया के उन टॉप 2-3 फीसदी लोगों में से हैं, जिन्हें सब कुछ मिला और अच्छी एजुकेशन भी मिली. अर्पित के मन में था कि उन्हें इस सोसाएटी को कुछ लौटाना है.

वह कभी ये नहीं चाहते थे कि ढेर सारे पैसे कमाकर फिर कुछ दान दे दें और सोसाएटी की मदद कर दें. वह अपने एजुकेशन से जुड़ा कुछ कर के समाज को कुछ देना चाहते थे. इसी वजह से उन्होंने धरक्षा शुरू किया.

अर्पित बताते हैं कि एक बार उनका छोटा सा भतीजा पेंटिंग कर रहा था. उस पेंटिंग में उसने आसमान का रंग भूरा बनाया, क्योंकि उसने नीला आसमान कभी देखा ही नहीं था. तब लगा कि इसका कुछ सॉल्यूशन निकालना ही होगा. वह अपनी एजुकेशन का इस्तेमाल कर के इतना इंपैक्ट लाना चाहते थे कि आसमान को फिर से नीला किया जा सके.

यानी वह कुछ ऐसा करना चाहते थे, जिससे प्रदूषण को कम किया जा सके. 2019 में उन्होंने इस पर रिसर्च शुरू की कि पराली को जलने से कैसे रोका जाए, इसका क्या सॉल्यूशन हो सकता है. इसके बाद उन्होंने बायो फैब्रिकेशन टेक्नोलॉजी पर काम शुरू किया. करीब 2 साल रिसर्च की और फिर नवंबर 2020 में धरक्षा ईको-सॉल्यूशन्स की शुरुआत कर दी.

धरक्षा का मतलब धरा यानी धरती की रक्षा से है.

क्या प्रोडक्ट बनाती है धरक्षा ईको-सॉल्यूशन्स ?

धरक्षा ने लैब में एक मशरूम स्ट्रेन डेवलप किया है. इसे किसानों से इकट्ठा की गई पराली पर ग्रो किया जाता है और फिर जब मशरूम की रूट्स डेवलप हो जाती हैं तो उसे एक सांचे में डाल दिया जाता है. इस तरह जिस भी तरह का सांचा होता है, वैसा प्रोडक्ट बना जाता है.

अभी ये स्टार्टअप थर्माकोल को रिप्लेस करने की कोशिश में है. इनके प्रोडक्ट थर्माकोल जैसे पैकेजिंग मटीरियल हैं, जिनके जरिए वह फिलहाल इलेक्ट्रॉनिक्स और ग्लास इंडस्ट्री में सामान की टूट-फूट को कम कर रहे हैं.

वहीं दूसरी ओर थर्माकोल से होने वाले प्रदूषण को भी रोक रहे हैं. प्लास्टिक 500 साल तक पड़ा रहता है, जबकि थर्माकोल उससे भी 4 गुना खतरनाक है, जो 2000 सालों तक पड़ा रहता है.

वहीं इनका प्रोडक्ट जमीन में 60 दिन में बायोडीग्रेड हो सकता है. अभी प्रूफ ऑफ कॉन्सेप्ट के लिए बल्लभगढ़ में 6000 स्क्वायर फुट का प्लांट लगाया है और आने वाले दिनों में इसे स्केल करने की कोशिश है.

बायो-फैब्रिकेशन की इस तकनीक में मशरूम के फल बनने से पहले ही उन्हें सांचे में डाल देते हैं, क्योंकि इसमें जरूरत सिर्फ जड़ों की बाइंडिंग की है.

इन प्रोडक्ट पर एक हाइड्रोफोबिक आउटर लेयर होती है, जिसके चलते उन पर पानी का असर नहीं होता है. जैसे कमल के पत्ते पर पानी पड़ता है तो वह चिपकता नहीं, बल्कि गिर जाता है. हालांकि, अगर इन प्रोडक्ट को तोड़कर जमीन में गाड़ दें तो महज 2 महीने में ही वह गलकर मिट्टी में मिल जाता है.

वहीं इन प्रोडक्ट्स की सेल्फ लाइफ करीब दो साल तक की होती है.

क्या है बिजनेस मॉडल ?

इनका एक सीधा सा बिजनेस मॉडल तो यही है कि वह तमाम कंपनियों को पैकेजिंग मटीरियल बेचते हैं. इससे जो कमाई होती है, उसी से पराली को जमा करने और प्रोडक्ट बनाने का खर्च निकलता है.

किसानों को अपने खेत से पराली हटाने के लिए कोई पैसा खर्च नहीं करना होता. किसान पराली इसीलिए जलाते हैं, क्योंकि वह जल्द से जल्द खेत खाली करना चाहते हैं. अर्पित बताते हैं कि उन्हें जानकारी मिलने के बाद उनकी कंपनी महज 3 घंटों में ही खेत साफ कर देती है, जिससे किसान अगली फसल की तैयारी शुरू कर सकता है.

चुनौतियां भी कम नहीं -

अर्पित बताते हैं कि इस स्टार्टअप में सबसे बड़ा चैलेंज तो फाइनेंस का ही है. पर्यावरण से जुड़े स्टार्टअप में ज्यादा लोग निवेश नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें रिटर्न की चिंता ज्यादा रहती है. इसमें दूसरा चैलेंज ये है कि जिस टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे हैं, वह कहीं मौजूद नहीं है. इसे खुद ही डेवलप करना है, सारे ऑर्गेनिज्म खुद ही ग्रो कर रहे हैं.

इतना ही नहीं, इंफ्रास्ट्रक्चर भी फार्मा लेवल का डेवलप करना है, जो एक चुनौती है. फंजाई फील्ड में रिसर्च भी बहुत ही कम हुई है, ऐसे में इस साइंस को समझने वाले लोग भी बहुत ही कम हैं.

अर्पित बताते हैं कि क्लाइंट साइड पर कोई चैलेंज नहीं है. क्लाइंट्स अच्छे से ट्रीट करते हैं और ऑर्डर्स भी देते हैं. उनका कहना है कि भारत में पैसे जुटाने में दिक्कत होती है. अगर बाहर होते तो पैसे आसानी से जुटाए जा सकते हैं.

दुनिया में कुछ कंपनियां हैं जो इसी तकनीक पर काम कर रही हैं, लेकिन वह गांजा निकालने के बाद बची टहनियों के वेस्ट का इस्तेमाल करती हैं.

भारत में पराली का इस्तेमाल हो रहा है. प्रोडक्ट तो काफी सिमिलर हैं, लेकिन प्रोसेस बहुत अलग है. भारत में यह तकनीकी सिर्फ धरक्षा के ही पास है.

कितनी है इन प्रोडक्ट की प्राइसिंग ?

अगर धरक्षा के प्रोडक्ट्स की बात करें तो यह थर्माकोल को तो रिप्लेस कर रहे हैं, लेकिन इनकी कीमत उसकी तुलना में अधिक है. अर्पित बताते हैं कि यह थर्माकोल के मुकाबले डेढ़ गुने से भी अधिक महंगा है. हालांकि, यह थर्माकोल के मुकाबले कहीं बेहतर है, जिसमें प्रोडक्ट की टूट-फूट भी कम होती है. साथ ही प्रोडक्ट के हिसाब से इसमें कस्टमाइजेशन भी आसान है.

भविष्य की क्या है प्लानिंग ?

आने वाले दिनों में सबसे पहले तो अर्पित की कोशिश है धरक्षा को बड़े लेवल पर ले जाने की. साल भर बाद वह फ्रेंचाइजी मॉडल पर ले जाना चाहते हैं, जिसके तहत पूरे देश में मैन्युफैक्चरिंग लोकेशन बनाई जाएंगी. इससे देश भर से पराली जमा करना आसान हो जाएगा.

साथ ही वह आने वाले दिनों में लकड़ी और पॉलीथीन जैसे प्रोडक्ट पर काम करेंगे. अर्पित बताते हैं कि धरक्षा के जरिए वह लकड़ी जितना मजबूत प्रोडक्ट बनाने के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. इससे फर्नीचर तक बन सकेंगे.

साथ ही मशरूम की प्रोसेस के दौरान वह एक मेटाबोलाइट जनरेट करते हैं, जिसका इस्तेमाल कर के पॉलीथीन जैसी चीज बनाई जा सकती है.

ये दोनों ही प्रोडक्ट ग्लोबल लेवल की प्रॉब्लम सॉल्व करने की ताकत रखते हैं. ऐसे में अगर ये दोनों प्रोडक्ट बनाने का काम सफल रहा तो कंपनी को विदेशों तक स्केल करना आसान हो जाएगा.

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